हास्य-व्यंग्य >> एक और लाल तिकोन एक और लाल तिकोननरेन्द्र कोहली
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प्रस्तुत कहानी संग्रह में नरेन्द्र कोहली की सत्ताईस रचनाएं संग्रहीत की गई हैं...
Ek aur lal Tikon - A Hindi Book based on Satire by Narendra Kohli
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नरेन्द्र कोहली के लेखन का विकास उनकी कहानियों के माध्यम से हुआ है। अपनी रचनाओं के विषय-वस्तु का चुनाव उन्होंने समाज से किया है। इसलिए उनकी रचनाएं हमें हमसे पुनः परिचित कराती हुई आभासित होती हैं। नरेन्द्र कोहली कथा, उपन्यास, कहानी, व्यंग्य समान अधिकार से लिखते हैं और एक कथा से व्यंग्य की उत्ताल लहरें ठाठें मारने लगती हैं। ऐसा प्रखर, सार्थक, निर्माणधर्मा तथा वैविध्यपूर्ण व्यंग्य नरेन्द्र कोहली की ही विशेषता है। प्रस्तुत कहानी संग्रह में नरेन्द्र कोहली की सत्ताईस रचनाएं संग्रहीत की गई हैं। लेखक के अनुसार इन व्यंग्य रचनाओं का सृजन किसी मानसिक यातना से अत्यंत पीड़ा की अवस्था में तड़पते हुए हुआ है।
लेखकीय
प्रस्तुत संग्रह में मेरी सत्ताईस रचनाएं संगृहीत हैं, जो विभिन्न पत्रिकाओं में ‘कहानी’ अथवा ‘हास्य-व्यंग्य’ की विधाओं के अंतर्गत प्रकाशित हुई हैं। मेरी अपनी दृष्टि में, इनमें से अधिकांश कहानियां ही हैं, किंतु कुछ ऐसी रचनाएं भी हैं, जो ‘कहानी’ के अंतर्गत स्वीकार नहीं की जा सकतीं।
इनमें हास्य कम है, व्यंग्य ही अधिक है। ये रचनाएं मैंने परिहासपूर्ण हल्की मनःस्थिति में नहीं लिखी हैं-किसी मानसिक यातना से भीतर-ही-भीतर ऐंठते हुए, अत्यंत पीड़ा की अवस्था में, इन रचनाओं से सृजन हुआ है। अतः इन्हें मैं हल्की अथवा अगंभीर रचनाएं न मानकर अत्यंत गंभीर साहित्य की कोटि में मानता हूं। वे वैयक्ति अथवा सामाजिक परिस्थितियां, जिन्होंने मुझसे यह सब लिखवाया, अगंभीर अथवा तुच्छ नहीं थीं।
‘इश्क़ एक शहर’ का तथा ‘संदर्भ प्रेम-प्रसंग का’ रचनाएं ‘धर्मयुग’ में मेरे उपनाम कनिष्क कात्यायन के साथ प्रकाशित हुई थीं। अब उस उपनाम की आवश्यकता नहीं रही, अतः उन दोनों रचनाओं को भी संग्रह में सम्मिलित कर लिया है।
इनमें हास्य कम है, व्यंग्य ही अधिक है। ये रचनाएं मैंने परिहासपूर्ण हल्की मनःस्थिति में नहीं लिखी हैं-किसी मानसिक यातना से भीतर-ही-भीतर ऐंठते हुए, अत्यंत पीड़ा की अवस्था में, इन रचनाओं से सृजन हुआ है। अतः इन्हें मैं हल्की अथवा अगंभीर रचनाएं न मानकर अत्यंत गंभीर साहित्य की कोटि में मानता हूं। वे वैयक्ति अथवा सामाजिक परिस्थितियां, जिन्होंने मुझसे यह सब लिखवाया, अगंभीर अथवा तुच्छ नहीं थीं।
‘इश्क़ एक शहर’ का तथा ‘संदर्भ प्रेम-प्रसंग का’ रचनाएं ‘धर्मयुग’ में मेरे उपनाम कनिष्क कात्यायन के साथ प्रकाशित हुई थीं। अब उस उपनाम की आवश्यकता नहीं रही, अतः उन दोनों रचनाओं को भी संग्रह में सम्मिलित कर लिया है।
नरेन्द्र कोहली
संस्कृति से बिछुड़ने का रोग
बच्चा रात भर नहीं सोया। थोड़ी देर सोता भी तो फिर जागकर रोने लगता। रोता तो बहुत ज़ोर से रोता। वह इतना रोया कि मुझे शक हो गया कि उसके भीतर किसी बहुत ही सबल राष्ट्रीय आत्मा का निवास है। क्योंकि, इतना अधिक तो देश की दुर्दशा पर रोने वाले भी बहुत मुश्किल से ही रोएंगे। मैं रात भर सोचता रहा कि बच्चा यदि इस अभ्यास को बनाए रखेगा तो उसे पर-राष्ट्रमंत्रालय में एक अच्छी सी नौकरी मिल सकती है। वे लोग उसे संयुक्त राष्ट्र में अपने देश का पक्ष लेकर रोने की नौकरी दे सकते हैं। विदेशों में अपने देश के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए रोने का काम सौंप सकते हैं या फिर शत्रु-राष्ट्रों के दूतावासों के गेट पर बैठकर निरंतर रोने की ड्यूटी लगाई जा सकती है। पर पता नहीं, वह बड़ा होने तक इसी प्रकार रो भी सकेगा कि नहीं।
सुबह मैं बच्चे को अपने वैद्य जी के पास ले गया। सुबह-सुबह ही मेरे मन में यह संदेह जागा था कि बच्चा अभ्यास से नहीं, किसी रोग की पीड़ा से रोता रहा है। अच्छा हो कि वैद्यराज को दिखा ही लिया जाए।
वैद्यराज बड़ी देर तक उसकी नब्ज पकड़कर बैठे रहे और आंखें मिचमिचाते रहे और मैं डरता रहा कि कहीं वे भी न रो पड़ें। पर वे रोए नहीं। थोड़ी देर बाद बड़ी करुण आवाज़ में बोले, ‘‘इस बालक को अपने देश की संस्कृति से बिछुड़ जाने का रोग है।’’
मैंने मन-ही-मन अपने घर में पड़ी हज़ारों रुपयों की मेडिकल बुक्स को तीली दिखाई और पूछा, ‘‘यह कौन सा रोग है, महाराज ?’’
‘‘होता है, यह भी एक रोग होता है।’’ वे अपने हाथ की अंगूठी को फिराते हुए बोले, ‘‘अभी बताता हूं कि यह क्या होता है।’’
फिर वे थोड़ी देर तक सोचते रहे कि वह क्या होता है और तब बोले, ‘‘हम अपने देश की संस्कृति से इतनी दूर चले आए हैं कि हमारे यहां पैदा होने वाले बच्चों की आत्माएं भूखी रह जाती हैं। जिस प्रकार बच्चे का भूखा पेट रोता है, वैसे ही बच्चे की भूखी आत्मा भी रोती है।’’
‘‘इसका उपचार क्या है, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
वे बोले, ‘‘उपचार भी करता हूं।’’
वैद्यराज अपने स्थान से उठकर दुकान के पिछवाड़े में स्थित अपने घर में चले गए। मैं यह सोचकर बैठा रहा कि वैद्यराज का लंच-टाइम हो गया होगा। भोजन पा लेंगे तो आ जाएंगे। सोचा, मैं भी उनके कुछ चूर्ण और भस्म खाकर सो रहूं। पर कैसे सोता, बच्चा मेरी गोद में लेटा, मुझे बिटर-बिटर देख रहा था। मैं यदि सोने का प्रयत्न करता तो वह रोने लगता।
वैद्यराज बहुत जल्दी लौटे। उनके हाथ में बहुत पुराना-सा एक ग्रामोफ़ोन था। वह शायद ग्रामोफ़ोन का सबसे पुराना मॉडल था। उन्होंने ग्रामोफ़ोन में धड़ाधड़ चाबी दी और ढूंढ़-ढांढ़कर एक पुराना सड़ा-सा रिकार्ड उस पर लगा दिया।
रिकार्ड में से शास्त्रीय संगीत की रीं रीं-टीं टीं निकली तो बच्चे ने चौंककर गर्दन उठा ली।
वैद्यराज ने ताली बजाई, ‘‘देखो, संस्कृति का पान कर रहा है।’’
और थोड़ी ही देर में बच्चा बोर होकर सो गया।
मैं भौचक होकर कभी वैद्यराज को देख रहा था और कभी बच्चे को। जो बच्चा रातभर नहीं सोया था और चीखता रहा था उसे शास्त्रीय संगीत ने कितनी जल्दी सुला दिया। मुझे उसकी विदेश मंत्रालय वाली नौकरी पर यह बड़ा भारी ख़तरा लगा। उसे जहां कहीं भी रोने वाली नौकरी पर भेजा जाएगा, वहां शत्रु शास्त्रीय संगीत से उसे सुला देंगे।
‘‘यह कैसे हुआ, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आत्मा लुप्त हो गई।’’ वैद्यराज बोले।
‘‘मैं शास्त्रीय संगीत की इस शक्ति से परिचित नहीं था, महाराज !’’ मैं बोला, ‘‘पर यदि यह इतनी बड़ी स्लीपिंग पिल है तो पुराने राजा महाराजा लोग जरूर अनिद्रा रोग के रोगी होते होंगे, जो गायकों को अपने दरबारों में रखते थे।’’
‘‘नहीं, उसका कारण दूसरा था।’’ वैद्यराज ने प्रकाश डाला, ‘‘वे लोग अनिद्रा रोग के रोगी नहीं थे। वस्तुतः वे लोग अपने दरबार के इन गायकों के संगीत के माध्यम से दरबारियों को सुलाकर, या उनींदा करके अपनी बात मनवा लिया करते थे। दरबार में सोने की परंपरा का शुभारंभ उन्हीं दिनों हुआ था। तभी तो आज भी लोग संसद भवन में जाकर सो जाते हैं। एक उपयोग और भी था। जिस प्रकार राजा लोग विषकन्या पालते थे, पहलवान पालते थे, उसी प्रकार गायकों को भी पालते थे, ताकि अपने शत्रुओं को अपने गायकों के आलापों से सुला दें और बाद में तो बाजी ही पलट गई थी....’’
वे अपनी बात बीच में ही छोड़कर हंसने लगे।
मैंने ग्रामोफ़ोन में और एक चाबी भर दी ताकि देश की संस्कृति चलती रहे और बच्चा सोया रहे, कहीं ऐसा न हो कि वैद्यराज की हंसी से वह जाग जाए और मेरा ज्ञान अधूरा ही रह जाए।
‘‘बाज़ी कैसे पलट गई ?’’ मैंने पूछा।
‘‘हुआ यह कि गायकों को अपने संगीत का मूल्य ज्ञात हो गया और उन्होंने अपने ही राजा को सुलाने की धमकी दी। तानसेन ने अपना अभ्यास अकबर के सामने करना आरंभ कर दिया और अकबर सदा ही उनींदा रहने लगा। उन्हीं दिनों उसके उनींदेपन से लाभ उठाकर शहजादा सलीम विद्रोह कर बैठा था। तब अकबर ने तानसेन को बहुत समझाया। उसे बहुत सारा धन दिया और उसे बीरबल के साथ वाला कमरा दे दिया। उससे उसे दोहरा लाभ हुआ। एक तो फिर तानसेन ने सुलाया नहीं और दूसरे बीरबल बहुत ज़्यादा सोने लगा और अकबर को राज-काज के लिए अधिक समय मिलने लगा, नहीं तो आइने अकबरी में भी अकबर को चुटकुले ही लिखवाने पड़ते। औरंगज़ेब ज़्यादा चालाक था, उसने अपने दरबार में ही नहीं, अपने आस-पास कहीं भी कोई गायक नहीं रहने दिया था।’’
‘‘पर यह संस्कृति से बिछुड़ने का रोग कब से चला है ?’’ मैंने बात बदल दी।
‘‘औरंगज़ेब के समय से ही चला है। उसने सारे जीवन में एक बार भी संगीत नहीं सुना था। पर अब यह रोग जड़ से समाप्त हो जाएगा।’’ उनके नयनों में तेज़ उतर आया, ‘‘मैं इसे जड़ से उखाड़ दूंगा। मैंने संगीतमयी गोलियां बनाई हैं। एक गोली खा लो, आत्मा तृप्त होकर सो जाती है। मैंने कालिदास के नायकों का भस्म बनाया है, कथकली का चूर्ण बनाया है। कोई चीज नहीं छोड़ी। संस्कृति का प्रत्येक तत्त्व मैंने अपनी औषधियों में प्रस्तुत कर दिया है। अब कोई भी राष्ट्रीय आत्मा भूखी रहकर रात-भर नहीं रोएगी। रोने वाली आत्माएं, स्वतंत्रता से पहले-पहले ही मर गईं। अब सारी आत्माएं मेरी औषधियां खाकर संस्कृति से भरपूर होकर सो जाती हैं। मैंने देश के हर बड़े नेता को, जिला स्तर तक शास्त्रीय संगीत की गोलियां खिलाई हैं और हमारा हर नेता सो रहा है। सोना हमारी संस्कृति है। है न चमत्कार। देखोगे ?’’ उन्होंने मुझसे पूछा।
मैं बिना कुछ समझे, उनकी ओर देखता रहा और उन्होंने शीशी से एक गोली निकाली, अपने मुंह में डाली और कुर्सी पर ही सो गए।
सुबह मैं बच्चे को अपने वैद्य जी के पास ले गया। सुबह-सुबह ही मेरे मन में यह संदेह जागा था कि बच्चा अभ्यास से नहीं, किसी रोग की पीड़ा से रोता रहा है। अच्छा हो कि वैद्यराज को दिखा ही लिया जाए।
वैद्यराज बड़ी देर तक उसकी नब्ज पकड़कर बैठे रहे और आंखें मिचमिचाते रहे और मैं डरता रहा कि कहीं वे भी न रो पड़ें। पर वे रोए नहीं। थोड़ी देर बाद बड़ी करुण आवाज़ में बोले, ‘‘इस बालक को अपने देश की संस्कृति से बिछुड़ जाने का रोग है।’’
मैंने मन-ही-मन अपने घर में पड़ी हज़ारों रुपयों की मेडिकल बुक्स को तीली दिखाई और पूछा, ‘‘यह कौन सा रोग है, महाराज ?’’
‘‘होता है, यह भी एक रोग होता है।’’ वे अपने हाथ की अंगूठी को फिराते हुए बोले, ‘‘अभी बताता हूं कि यह क्या होता है।’’
फिर वे थोड़ी देर तक सोचते रहे कि वह क्या होता है और तब बोले, ‘‘हम अपने देश की संस्कृति से इतनी दूर चले आए हैं कि हमारे यहां पैदा होने वाले बच्चों की आत्माएं भूखी रह जाती हैं। जिस प्रकार बच्चे का भूखा पेट रोता है, वैसे ही बच्चे की भूखी आत्मा भी रोती है।’’
‘‘इसका उपचार क्या है, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
वे बोले, ‘‘उपचार भी करता हूं।’’
वैद्यराज अपने स्थान से उठकर दुकान के पिछवाड़े में स्थित अपने घर में चले गए। मैं यह सोचकर बैठा रहा कि वैद्यराज का लंच-टाइम हो गया होगा। भोजन पा लेंगे तो आ जाएंगे। सोचा, मैं भी उनके कुछ चूर्ण और भस्म खाकर सो रहूं। पर कैसे सोता, बच्चा मेरी गोद में लेटा, मुझे बिटर-बिटर देख रहा था। मैं यदि सोने का प्रयत्न करता तो वह रोने लगता।
वैद्यराज बहुत जल्दी लौटे। उनके हाथ में बहुत पुराना-सा एक ग्रामोफ़ोन था। वह शायद ग्रामोफ़ोन का सबसे पुराना मॉडल था। उन्होंने ग्रामोफ़ोन में धड़ाधड़ चाबी दी और ढूंढ़-ढांढ़कर एक पुराना सड़ा-सा रिकार्ड उस पर लगा दिया।
रिकार्ड में से शास्त्रीय संगीत की रीं रीं-टीं टीं निकली तो बच्चे ने चौंककर गर्दन उठा ली।
वैद्यराज ने ताली बजाई, ‘‘देखो, संस्कृति का पान कर रहा है।’’
और थोड़ी ही देर में बच्चा बोर होकर सो गया।
मैं भौचक होकर कभी वैद्यराज को देख रहा था और कभी बच्चे को। जो बच्चा रातभर नहीं सोया था और चीखता रहा था उसे शास्त्रीय संगीत ने कितनी जल्दी सुला दिया। मुझे उसकी विदेश मंत्रालय वाली नौकरी पर यह बड़ा भारी ख़तरा लगा। उसे जहां कहीं भी रोने वाली नौकरी पर भेजा जाएगा, वहां शत्रु शास्त्रीय संगीत से उसे सुला देंगे।
‘‘यह कैसे हुआ, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आत्मा लुप्त हो गई।’’ वैद्यराज बोले।
‘‘मैं शास्त्रीय संगीत की इस शक्ति से परिचित नहीं था, महाराज !’’ मैं बोला, ‘‘पर यदि यह इतनी बड़ी स्लीपिंग पिल है तो पुराने राजा महाराजा लोग जरूर अनिद्रा रोग के रोगी होते होंगे, जो गायकों को अपने दरबारों में रखते थे।’’
‘‘नहीं, उसका कारण दूसरा था।’’ वैद्यराज ने प्रकाश डाला, ‘‘वे लोग अनिद्रा रोग के रोगी नहीं थे। वस्तुतः वे लोग अपने दरबार के इन गायकों के संगीत के माध्यम से दरबारियों को सुलाकर, या उनींदा करके अपनी बात मनवा लिया करते थे। दरबार में सोने की परंपरा का शुभारंभ उन्हीं दिनों हुआ था। तभी तो आज भी लोग संसद भवन में जाकर सो जाते हैं। एक उपयोग और भी था। जिस प्रकार राजा लोग विषकन्या पालते थे, पहलवान पालते थे, उसी प्रकार गायकों को भी पालते थे, ताकि अपने शत्रुओं को अपने गायकों के आलापों से सुला दें और बाद में तो बाजी ही पलट गई थी....’’
वे अपनी बात बीच में ही छोड़कर हंसने लगे।
मैंने ग्रामोफ़ोन में और एक चाबी भर दी ताकि देश की संस्कृति चलती रहे और बच्चा सोया रहे, कहीं ऐसा न हो कि वैद्यराज की हंसी से वह जाग जाए और मेरा ज्ञान अधूरा ही रह जाए।
‘‘बाज़ी कैसे पलट गई ?’’ मैंने पूछा।
‘‘हुआ यह कि गायकों को अपने संगीत का मूल्य ज्ञात हो गया और उन्होंने अपने ही राजा को सुलाने की धमकी दी। तानसेन ने अपना अभ्यास अकबर के सामने करना आरंभ कर दिया और अकबर सदा ही उनींदा रहने लगा। उन्हीं दिनों उसके उनींदेपन से लाभ उठाकर शहजादा सलीम विद्रोह कर बैठा था। तब अकबर ने तानसेन को बहुत समझाया। उसे बहुत सारा धन दिया और उसे बीरबल के साथ वाला कमरा दे दिया। उससे उसे दोहरा लाभ हुआ। एक तो फिर तानसेन ने सुलाया नहीं और दूसरे बीरबल बहुत ज़्यादा सोने लगा और अकबर को राज-काज के लिए अधिक समय मिलने लगा, नहीं तो आइने अकबरी में भी अकबर को चुटकुले ही लिखवाने पड़ते। औरंगज़ेब ज़्यादा चालाक था, उसने अपने दरबार में ही नहीं, अपने आस-पास कहीं भी कोई गायक नहीं रहने दिया था।’’
‘‘पर यह संस्कृति से बिछुड़ने का रोग कब से चला है ?’’ मैंने बात बदल दी।
‘‘औरंगज़ेब के समय से ही चला है। उसने सारे जीवन में एक बार भी संगीत नहीं सुना था। पर अब यह रोग जड़ से समाप्त हो जाएगा।’’ उनके नयनों में तेज़ उतर आया, ‘‘मैं इसे जड़ से उखाड़ दूंगा। मैंने संगीतमयी गोलियां बनाई हैं। एक गोली खा लो, आत्मा तृप्त होकर सो जाती है। मैंने कालिदास के नायकों का भस्म बनाया है, कथकली का चूर्ण बनाया है। कोई चीज नहीं छोड़ी। संस्कृति का प्रत्येक तत्त्व मैंने अपनी औषधियों में प्रस्तुत कर दिया है। अब कोई भी राष्ट्रीय आत्मा भूखी रहकर रात-भर नहीं रोएगी। रोने वाली आत्माएं, स्वतंत्रता से पहले-पहले ही मर गईं। अब सारी आत्माएं मेरी औषधियां खाकर संस्कृति से भरपूर होकर सो जाती हैं। मैंने देश के हर बड़े नेता को, जिला स्तर तक शास्त्रीय संगीत की गोलियां खिलाई हैं और हमारा हर नेता सो रहा है। सोना हमारी संस्कृति है। है न चमत्कार। देखोगे ?’’ उन्होंने मुझसे पूछा।
मैं बिना कुछ समझे, उनकी ओर देखता रहा और उन्होंने शीशी से एक गोली निकाली, अपने मुंह में डाली और कुर्सी पर ही सो गए।
कथा पुरानी मैत्री की
उन दोनों की मैत्री बहुत पुरानी थी।
जान-पहचान ज़रा सी गहरी होने लगी थी कि पहले ही दिन लड़की ने बात साफ़ कर देना उचित समझा। कहीं यह न हो कि यह हजरत प्रेम का दम भरने लगें। ऐसी गलतफहमियां कष्टकर होती हैं। उसने बता दिया कि दूर के कोई रिश्तेदार हैं उसके। दूर के ही सही, पर हैं तो रिश्तेदार। और उन्हीं के बेटे के साथ उसके रिश्ते की बातचीत चल रही है। जब बातचीत चल रही है तो उसके पक्के हो जाने की भी पूरी संभावना है। कहीं यह न हो कि उधर बातचीत पक्की हो जाए और इधर प्रेम-वेम हो जाए। अच्छा है कि पहले से ही सब कुछ स्पष्ट रहे।
लड़के के जवान दिल को ज़रा बुरा लगा। भला यह भी कोई सह सकता है कि कोई लड़की उससे साफ़-साफ़ कह दे कि वह उससे प्रेम नहीं कर सकती ! प्रेम को स्वीकार न करे, पर उसे नकारे तो नहीं ! असल में उसका एक भ्रम टूट गया था। अपने मन में तो उसने भी स्पष्ट सोच रखा था कि वह लड़की से प्रेम नहीं करता पर साथ ही यह भी सोच रखा था कि अभी न सही, कभी-न-कभी तो वह उससे प्रेम करेगी, वरन उस पर बुरी तरह मरने लगेगी। और जब वह अपनी मजबूरी प्रकट करेगी, उस पर अपना मरना जताएगी तो वह कह देगा कि वह उसे पसंद तो करता है, पर उससे प्रेम नहीं करता। वह उसके लिए नहीं है। तब आई हुई चीज को ठुकराने में कितना आनंद आएगा। और जो लड़का, एक लड़की के निवेदित प्रेम का अस्वीकार कर सकता है, वह क्या नहीं कर सकता।
पर उसकी महानता का स्वप्न लड़की ने तोड़ दिया था। स्वप्न टूटने पर पीड़ा होनी चाहिए, अतः लड़के को भी हुई, पर वह ज़रा समझदार था। सोचा-चलो, प्रेम नहीं दोस्ती तो स्वीकार कर रही है। दोस्ती प्रेम नामक वस्तु से कुछ अधिक आधुनिक भी है और उसमें जोखिम भी कम है।
वह इस विषय में घर आकर भी सोचता रहा। ठीक तो है ! उसे उस लड़की से विवाह जब नहीं ही करना है, तो वह प्रेम न भी करे तो क्या हर्ज है। वैसे भी वह जिस लड़की से प्रेम करना चाहता है, वह लड़की कोई और ही होनी चाहिए। इस लड़की के दांत उसे एकदम पसंद नहीं थे। वे कुछ उठे हुए थे। फिर जैसा परिवार वह चाहता था, इस लड़की का परिवार भी वैसा नहीं है। तो फिर प्रेम नहीं ही हुआ तो क्या नुकसान हो गया ?
फिर उनकी दोस्ती कुछ पक्की भी हो गई। कॉलेज के सहपाठियों की दोस्ती से यह कुछ अधिक बढ़ गई। दोनों एक-दूसरे के घर भी आने-जाने लगे। लड़का ज़रा आदर्शवादी था और लड़की हिंदुस्तानी थी, इसलिए दोनों के मिलने-जुलने में किसी प्रकार का ख़तरा भी नहीं था। दोनों के मां-बाप इस बात को जानते थे। लड़के के मां-बाप ने समझ लिया कि लड़की बेवकूफ है हमारे लड़के पर मरती है (और हमारा लड़का उसे पूछता भी नहीं) जैसे कि शहर की सारी लड़कियां मरती हैं। लड़की के मां-बाप ने ठीक इसके विपरीत बात सोची और लड़के को मूर्ख तथा अपनी लड़की को एडवांस्ड मान लिया। (पर यह एक लड़के-लड़की की कहानी है, मां बाप का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। वे भूल से आ गए हैं।)
जब बात यहां तक आ गई तो लड़के और लड़की, दोनों में साहस आ गया। दोनों एक-साथ घूमने भी चले जाते थे। किसी के घर आना-जाना होता, तो भी अलग-अलग न जाते। लड़की ने अपनी दृढ़ता अधिक जताई और लड़के से कह दिया कि वह अन्य भारतीय लड़कियों, के समान, अपने विवाह के पश्चात न तो उसको पहचानने से इनकार करेगी और न ही उसे अपना भाई घोषित करेगी। वह उससे इसी प्रकार मिलती रहेगी और उसे अपनी ससुराल में भी बुलाएगी।
लड़का खुश हो गया मन-ही-मन और ऊपर से भी। बात भी खुश होने की ही थी। एक तो उसे इतनी अच्छी मित्र मिली थी, जो जीवन भर दोस्ती निबाहने का वचन दे रही थी और फिर वे इस देश में पहली बार यह स्थापित करने जा रहे थे कि लड़की-लड़के में भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के अलावा भी कोई संबंध हो सकता है। देश में सुधार हो जाए, इससे बड़ी खुशी की बात किसी देश प्रेमी के लिए और क्या हो सकती है। (वह लड़का उस लड़की का प्रेमी चाहे न हो, पर देश का प्रेमी तो था ही।)
लड़का खुश इसलिए भी था कि उसका आदर्शवादी मन यह कहता था कि देखो, वह कैसे आदर्श चरित्र का व्यक्ति है कि जवान लड़की को उससे कोई भय नहीं लगता। लड़कियों के नजदीक रहना उसे अच्छा लगता था, पर सबका न तो वह प्रेमी हो सकता था, न भाई। तो अब सब कुछ ठीक था।
लड़की वचन की पक्की निकली। जब वे रिश्तेदार जिनके बेटे से उसके रिश्ते की बातचीत चल रही थी, मामला पक्का करने आए तो वह लड़के को उनसे मिलाने ले आई। ‘पिताजी’ या ‘बाबूजी’ या देखिए कहकर उसने लड़के का परिचय अपने दोस्त के रूप में करा दिया। ‘पिताजी’ या ‘बाबूजी’ को लड़के से मिलकर बहुत खुशी हुई जैसी कि हर परिचय के बाद होती है। और खुशी इतनी हुई कि वे दूसरे दिन ही रिश्ते की बातचीत तोड़कर चले गए। बातचीत टूटने का दुख उस रिश्तेदार के बेटे को ही हुआ-बाकी सबको तो खुशी-ही-खुशी थी। लड़के को तो खुशी होनी ही थी। लड़की को भी हुई और लड़की के मां-बाप को भी। मां-बाप को इसलिए कि एकाएक उन्हें लगा था, उनकी लड़की गलत लड़के के पल्ले पड़ते-पड़ते रह गई।
पर एक बात बीच में अड़ी हुई थी। अब तक लड़के और लड़की में बहुत देर तक कई-कई घंटे करके कई दिनों तक यह चर्चा हुई थी कि लड़की की शादी पर लड़का उसे क्या भेंट करेगा। लड़की जीवन में अपने तरह की एक ही दोस्त थी, इसलिए लड़का उसे कोई ऐसी भारी भरकम भेंट देना चाहता था, जो लड़की को बरसों तक उसकी याद दिलाए और उसके पति के मन में शक बनाए रखे। यदि कहीं उस भेंट के कारण उनमें अनबन हो जाए और वैवाहिक बंधन टूट जाएं तो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी !
लड़की के मस्तिष्क में ये सारी बातें नहीं थीं। वह तो एक ही बात जानती थी कि लड़का उसका दोस्त है और उसे कोई बहुत अच्छी भेंट देना चाहता है। भला किसी दोस्त से कुछ लेने में क्या बुराई है ! बहुत सोच-समझकर दोनों ने पहले से ही मिलकर एक टाइम-पीस खरीदा था। उसे अलार्म के रूप में एक बड़ी अच्छी धुन बजती थी। लड़के ने सोचा था, रोज सबेरे लड़की अलार्म सुनकर उठेगी और अलार्म के कारण उसे याद कर लिया करेगी। उसी अलार्म के कारण उसका पति सुबह से ही खिन्न हो जाएगा, दिन भर नाराज रहेगा और रात को करवट बदलकर सो जाएगा !
दोनों ने इकट्ठे जाकर घड़ी पहले ही खरीद ली थी कि कहीं विवाह के समय लड़की न जा सकी तो मुश्किल न हो। शादी की बात अब टूट चुकी थी, लेकिन घड़ी खरीदी जा चुकी थी-और वह सिर्फ लड़की को देने के लिए थी। लड़की चाहती थी कि लड़का घड़ी उसके जन्मदिन पर दे दे, क्योंकि अब शादी न जाने कब होगी ! लड़का उसे जीवन में दो बार भेंट देना नहीं चाहता था। जन्म-दिन पर घड़ी दे दी तो विवाह पर न जाने क्या देना पड़ेगा।
उसे एक और ख़तरा भी महसूस हो रहा था। लड़की का रिश्ता रिश्तेदारों के बीच टूट गया था। अब कहीं यह अपनी दोस्ती से पीछे न हट जाए। बहुत ज़्यादा बेतकल्लुफ होकर कहीं यह न कह दे कि जब हम एक-दूसरे को इतना पसंद करते हैं, जात-पांत को भी नहीं मानते, दहेज भी हमें पसंद नहीं है, तो फिर हम ही आपस में शादी क्यों नहीं कर लेते ? लड़का लड़की से शादी करना नहीं चाहता था। शादी कर लेने पर उन नए आदर्शों की स्थापना नहीं हो सकती थी, जिन्हें वह इस देश में स्थापित करना चाहता था।
पर लड़की ने शादी का प्रस्ताव नहीं रखा। वह जब भी मिलती, यह जरूर बताती कि किसने उसे क्या कॉम्पलिमेंट दिया, किसके यहां से विवाह का प्रस्ताव आया है, किसने प्रेम निवेदन किया....वह उसे रोज जताती कि यह दुनियां कितनी बुरी है। विशेषकर इस देश का पुरुष वर्ग कितना पतित है। यहां प्रत्येक लड़की का सम्मान खतरे में है। उसे बचाए रखने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है ! फिर वह लड़के से कहती कि इस घोर पतित संसार में तुम एक आदर्श युवक हो। तुम जिसका हाथ पकड़ोगे, वह लड़की निहाल हो जाएगी।
पर लड़के ने उसका हाथ पकड़ने की इच्छा कभी जाहिर नहीं की। उल्टे वह, लड़की को बिना बताए, अपने लिए कोई और लड़की ढूंढ़ने लगा। पता चला कि लड़की उसके मां बाप ने (लीजिए फिर मां बाप आ गए !) पहले से ढूंढ़ रखी है और उसकी हां होने भर की देर है। उसने हां कह दी। झट उसका विवाह हो गया।
विवाह के उपलक्ष्य में मंगल समारोह हुआ। लड़की समारोह में आई। लड़की को देखते ही लड़का एकदम डर गया। कहीं वह उसकी पत्नी से कह न बैठे कि वह उसकी दोस्त है। ऐसा हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। कहीं उसकी पत्नी भी किसी मर्द को अपना दोस्त कहकर मिलाने लगे तो ? पर लड़की समझदार थी। उसने ऐसी कोई हरकत नहीं की। उसने लड़के तथा उसकी पत्नी को बहुत-बहुत बधाई दी और बड़े से एक पैकेट में सुंदर सा एक गुड्ढा ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ भेंट कर गई। लड़के को लगा कि लड़की ने उसे ठग लिया है। बड़ी एडवांस्ड बनी फिरती है ! प्लास्टिक का गुड्डा देकर टरका गई ! खैर, देख लेंगे।
कुछ दिनों के बाद लड़की फिर लड़के से मिलने आई। अपने साथ वह चार तस्वीरें लाई थी। वे उन चार व्यक्तियों की तस्वीरें थीं, जिनकी ओर से विवाह के प्रस्ताव आए थे। एक सच्चे दोस्त के नाते वह लड़के से सलाह लेने आई थी कि इनमें से किसको चुना जाए। या किसी को चुना जाए भी या नहीं ? उसने अपनी दोस्ती की कसम दोहराई और कहा कि वह लड़के की अनुमति और इच्छा के बिना किसी से शादी नहीं करेगी। लड़के के मन में आया कि उसे शादी करने से मना कर दे, पर स्वयं शादी करके उसे रोकना उचित नहीं था। लड़के ने उसे सहर्ष शादी करने की अनुमति दे दी। अब प्रश्न लड़के के चुनाव का था। चूंकि वह लड़की का दोस्त था, लड़की के लिए अच्छे-से-अच्छा वर चुनना उसका कर्तव्य था। उन चारों में से एक इंजीनियर था, एक डॉक्टर, एक लेक्चरर और एक सरकारी अफसर। लड़का बहुत देर तक उन्हें देखता रहा। अंत में उसने बात टालने के लिए लड़की से ही उसकी पसंद पूछी। लड़की को सरकारी अफसर सबसे ज़्यादा पसंद था। लड़का उस सरकारी अफसर को जानता था। सरकारी अफसर एक सच्चा अफसर था। ऊंचे लोगों में उसका उठना-बैठना था, इसलिए शराब पीता था। लड़के ने लड़का को यह बताने की आवश्कता नहीं समझी और उसकी पसंद की ख़ूब प्रशंसा करके जल्दी-जल्दी शादी कर लेने की सलाह दी।
लड़की की शादी हो गई। शादी के उपलक्ष्य में मंगल समारोह भी हुआ। लड़का अपनी पत्नी सहित आमंत्रित था। वह गया भी और अपनी शादी में मिले। उपहारों में से एक मामूली-सा लैमन सेट भी ले गया। इस बार लड़की ने उसका परिचय अपने दोस्त के रूप में न कराकर, अपनी सहेली के पति के रूप में कराया। लड़के को यह बहुत बुरा लगा। वह चाहता था कि लड़की अपने पति से उसका परिचय अपने दोस्त के रूप में कराए, क्योंकि लड़के की पत्नी उससे बहुत दूर खड़ी, जल्दी-जल्दी पनीर के पकौड़े खा रही थी। पर लड़की ने वैसा नहीं किया। इतने में लड़के की पत्नी भी वहां आ गई और लड़का स्वयं ही वहां से टल गया।
कुछ महीनों के पश्चात् लड़की फिर लड़के से मिलने आई। उसने बताया कि उसका पति कमीना आदमी है। शराब पीता है और उस पर शक करता है। वह उसके साथ नहीं रहना चाहती थी और एक सच्ची दोस्त के नाते वह लड़के से सलाह लेने आई थी।
लड़के को बहुत खेद हुआ। उसने सरकारी अफसर के विरुद्ध बहुत कुछ कहा। उसने यह भी कहा कि किसी पशु के साथ रहने से तो अच्छा है कि भारतीय नारी अकेली रहे, अविवाहिता रहे या विधवा रहे ! उसने यह सलाह भी दी कि अब वह लौटकर अपने पति के पास वापस जाए ही न। उसने लड़की को आश्वासन दिया कि वह एक दोस्त के रूप में हर कठिनाई में उसका पूरा-पूरा साथ देगा। लड़की को जोश आ गया। उसने उठते-उठते कहा कि ठीक है, ज़रूरी होने पर वह तलाक भी ले सकती है।
लड़का बहुत खुश हुआ। लड़की के जाने के बाद वह बहुत देर तक सीटी बजाता हुआ कमरे में टहलता रहा। फिर वह बहुत अच्छे मूड़ में बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। टैक्सी लेकर वह अपनी ससुराल गया, जहां उसकी पत्नी सबसे मिलने पहुंची हुई थी। बहुत देर तक वह अपनी सालियों के साथ चहकता रहा, फिर घड़ी देखकर, पत्नी को साथ ले, पिक्चर देखने चला गया।
जान-पहचान ज़रा सी गहरी होने लगी थी कि पहले ही दिन लड़की ने बात साफ़ कर देना उचित समझा। कहीं यह न हो कि यह हजरत प्रेम का दम भरने लगें। ऐसी गलतफहमियां कष्टकर होती हैं। उसने बता दिया कि दूर के कोई रिश्तेदार हैं उसके। दूर के ही सही, पर हैं तो रिश्तेदार। और उन्हीं के बेटे के साथ उसके रिश्ते की बातचीत चल रही है। जब बातचीत चल रही है तो उसके पक्के हो जाने की भी पूरी संभावना है। कहीं यह न हो कि उधर बातचीत पक्की हो जाए और इधर प्रेम-वेम हो जाए। अच्छा है कि पहले से ही सब कुछ स्पष्ट रहे।
लड़के के जवान दिल को ज़रा बुरा लगा। भला यह भी कोई सह सकता है कि कोई लड़की उससे साफ़-साफ़ कह दे कि वह उससे प्रेम नहीं कर सकती ! प्रेम को स्वीकार न करे, पर उसे नकारे तो नहीं ! असल में उसका एक भ्रम टूट गया था। अपने मन में तो उसने भी स्पष्ट सोच रखा था कि वह लड़की से प्रेम नहीं करता पर साथ ही यह भी सोच रखा था कि अभी न सही, कभी-न-कभी तो वह उससे प्रेम करेगी, वरन उस पर बुरी तरह मरने लगेगी। और जब वह अपनी मजबूरी प्रकट करेगी, उस पर अपना मरना जताएगी तो वह कह देगा कि वह उसे पसंद तो करता है, पर उससे प्रेम नहीं करता। वह उसके लिए नहीं है। तब आई हुई चीज को ठुकराने में कितना आनंद आएगा। और जो लड़का, एक लड़की के निवेदित प्रेम का अस्वीकार कर सकता है, वह क्या नहीं कर सकता।
पर उसकी महानता का स्वप्न लड़की ने तोड़ दिया था। स्वप्न टूटने पर पीड़ा होनी चाहिए, अतः लड़के को भी हुई, पर वह ज़रा समझदार था। सोचा-चलो, प्रेम नहीं दोस्ती तो स्वीकार कर रही है। दोस्ती प्रेम नामक वस्तु से कुछ अधिक आधुनिक भी है और उसमें जोखिम भी कम है।
वह इस विषय में घर आकर भी सोचता रहा। ठीक तो है ! उसे उस लड़की से विवाह जब नहीं ही करना है, तो वह प्रेम न भी करे तो क्या हर्ज है। वैसे भी वह जिस लड़की से प्रेम करना चाहता है, वह लड़की कोई और ही होनी चाहिए। इस लड़की के दांत उसे एकदम पसंद नहीं थे। वे कुछ उठे हुए थे। फिर जैसा परिवार वह चाहता था, इस लड़की का परिवार भी वैसा नहीं है। तो फिर प्रेम नहीं ही हुआ तो क्या नुकसान हो गया ?
फिर उनकी दोस्ती कुछ पक्की भी हो गई। कॉलेज के सहपाठियों की दोस्ती से यह कुछ अधिक बढ़ गई। दोनों एक-दूसरे के घर भी आने-जाने लगे। लड़का ज़रा आदर्शवादी था और लड़की हिंदुस्तानी थी, इसलिए दोनों के मिलने-जुलने में किसी प्रकार का ख़तरा भी नहीं था। दोनों के मां-बाप इस बात को जानते थे। लड़के के मां-बाप ने समझ लिया कि लड़की बेवकूफ है हमारे लड़के पर मरती है (और हमारा लड़का उसे पूछता भी नहीं) जैसे कि शहर की सारी लड़कियां मरती हैं। लड़की के मां-बाप ने ठीक इसके विपरीत बात सोची और लड़के को मूर्ख तथा अपनी लड़की को एडवांस्ड मान लिया। (पर यह एक लड़के-लड़की की कहानी है, मां बाप का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। वे भूल से आ गए हैं।)
जब बात यहां तक आ गई तो लड़के और लड़की, दोनों में साहस आ गया। दोनों एक-साथ घूमने भी चले जाते थे। किसी के घर आना-जाना होता, तो भी अलग-अलग न जाते। लड़की ने अपनी दृढ़ता अधिक जताई और लड़के से कह दिया कि वह अन्य भारतीय लड़कियों, के समान, अपने विवाह के पश्चात न तो उसको पहचानने से इनकार करेगी और न ही उसे अपना भाई घोषित करेगी। वह उससे इसी प्रकार मिलती रहेगी और उसे अपनी ससुराल में भी बुलाएगी।
लड़का खुश हो गया मन-ही-मन और ऊपर से भी। बात भी खुश होने की ही थी। एक तो उसे इतनी अच्छी मित्र मिली थी, जो जीवन भर दोस्ती निबाहने का वचन दे रही थी और फिर वे इस देश में पहली बार यह स्थापित करने जा रहे थे कि लड़की-लड़के में भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के अलावा भी कोई संबंध हो सकता है। देश में सुधार हो जाए, इससे बड़ी खुशी की बात किसी देश प्रेमी के लिए और क्या हो सकती है। (वह लड़का उस लड़की का प्रेमी चाहे न हो, पर देश का प्रेमी तो था ही।)
लड़का खुश इसलिए भी था कि उसका आदर्शवादी मन यह कहता था कि देखो, वह कैसे आदर्श चरित्र का व्यक्ति है कि जवान लड़की को उससे कोई भय नहीं लगता। लड़कियों के नजदीक रहना उसे अच्छा लगता था, पर सबका न तो वह प्रेमी हो सकता था, न भाई। तो अब सब कुछ ठीक था।
लड़की वचन की पक्की निकली। जब वे रिश्तेदार जिनके बेटे से उसके रिश्ते की बातचीत चल रही थी, मामला पक्का करने आए तो वह लड़के को उनसे मिलाने ले आई। ‘पिताजी’ या ‘बाबूजी’ या देखिए कहकर उसने लड़के का परिचय अपने दोस्त के रूप में करा दिया। ‘पिताजी’ या ‘बाबूजी’ को लड़के से मिलकर बहुत खुशी हुई जैसी कि हर परिचय के बाद होती है। और खुशी इतनी हुई कि वे दूसरे दिन ही रिश्ते की बातचीत तोड़कर चले गए। बातचीत टूटने का दुख उस रिश्तेदार के बेटे को ही हुआ-बाकी सबको तो खुशी-ही-खुशी थी। लड़के को तो खुशी होनी ही थी। लड़की को भी हुई और लड़की के मां-बाप को भी। मां-बाप को इसलिए कि एकाएक उन्हें लगा था, उनकी लड़की गलत लड़के के पल्ले पड़ते-पड़ते रह गई।
पर एक बात बीच में अड़ी हुई थी। अब तक लड़के और लड़की में बहुत देर तक कई-कई घंटे करके कई दिनों तक यह चर्चा हुई थी कि लड़की की शादी पर लड़का उसे क्या भेंट करेगा। लड़की जीवन में अपने तरह की एक ही दोस्त थी, इसलिए लड़का उसे कोई ऐसी भारी भरकम भेंट देना चाहता था, जो लड़की को बरसों तक उसकी याद दिलाए और उसके पति के मन में शक बनाए रखे। यदि कहीं उस भेंट के कारण उनमें अनबन हो जाए और वैवाहिक बंधन टूट जाएं तो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी !
लड़की के मस्तिष्क में ये सारी बातें नहीं थीं। वह तो एक ही बात जानती थी कि लड़का उसका दोस्त है और उसे कोई बहुत अच्छी भेंट देना चाहता है। भला किसी दोस्त से कुछ लेने में क्या बुराई है ! बहुत सोच-समझकर दोनों ने पहले से ही मिलकर एक टाइम-पीस खरीदा था। उसे अलार्म के रूप में एक बड़ी अच्छी धुन बजती थी। लड़के ने सोचा था, रोज सबेरे लड़की अलार्म सुनकर उठेगी और अलार्म के कारण उसे याद कर लिया करेगी। उसी अलार्म के कारण उसका पति सुबह से ही खिन्न हो जाएगा, दिन भर नाराज रहेगा और रात को करवट बदलकर सो जाएगा !
दोनों ने इकट्ठे जाकर घड़ी पहले ही खरीद ली थी कि कहीं विवाह के समय लड़की न जा सकी तो मुश्किल न हो। शादी की बात अब टूट चुकी थी, लेकिन घड़ी खरीदी जा चुकी थी-और वह सिर्फ लड़की को देने के लिए थी। लड़की चाहती थी कि लड़का घड़ी उसके जन्मदिन पर दे दे, क्योंकि अब शादी न जाने कब होगी ! लड़का उसे जीवन में दो बार भेंट देना नहीं चाहता था। जन्म-दिन पर घड़ी दे दी तो विवाह पर न जाने क्या देना पड़ेगा।
उसे एक और ख़तरा भी महसूस हो रहा था। लड़की का रिश्ता रिश्तेदारों के बीच टूट गया था। अब कहीं यह अपनी दोस्ती से पीछे न हट जाए। बहुत ज़्यादा बेतकल्लुफ होकर कहीं यह न कह दे कि जब हम एक-दूसरे को इतना पसंद करते हैं, जात-पांत को भी नहीं मानते, दहेज भी हमें पसंद नहीं है, तो फिर हम ही आपस में शादी क्यों नहीं कर लेते ? लड़का लड़की से शादी करना नहीं चाहता था। शादी कर लेने पर उन नए आदर्शों की स्थापना नहीं हो सकती थी, जिन्हें वह इस देश में स्थापित करना चाहता था।
पर लड़की ने शादी का प्रस्ताव नहीं रखा। वह जब भी मिलती, यह जरूर बताती कि किसने उसे क्या कॉम्पलिमेंट दिया, किसके यहां से विवाह का प्रस्ताव आया है, किसने प्रेम निवेदन किया....वह उसे रोज जताती कि यह दुनियां कितनी बुरी है। विशेषकर इस देश का पुरुष वर्ग कितना पतित है। यहां प्रत्येक लड़की का सम्मान खतरे में है। उसे बचाए रखने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है ! फिर वह लड़के से कहती कि इस घोर पतित संसार में तुम एक आदर्श युवक हो। तुम जिसका हाथ पकड़ोगे, वह लड़की निहाल हो जाएगी।
पर लड़के ने उसका हाथ पकड़ने की इच्छा कभी जाहिर नहीं की। उल्टे वह, लड़की को बिना बताए, अपने लिए कोई और लड़की ढूंढ़ने लगा। पता चला कि लड़की उसके मां बाप ने (लीजिए फिर मां बाप आ गए !) पहले से ढूंढ़ रखी है और उसकी हां होने भर की देर है। उसने हां कह दी। झट उसका विवाह हो गया।
विवाह के उपलक्ष्य में मंगल समारोह हुआ। लड़की समारोह में आई। लड़की को देखते ही लड़का एकदम डर गया। कहीं वह उसकी पत्नी से कह न बैठे कि वह उसकी दोस्त है। ऐसा हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। कहीं उसकी पत्नी भी किसी मर्द को अपना दोस्त कहकर मिलाने लगे तो ? पर लड़की समझदार थी। उसने ऐसी कोई हरकत नहीं की। उसने लड़के तथा उसकी पत्नी को बहुत-बहुत बधाई दी और बड़े से एक पैकेट में सुंदर सा एक गुड्ढा ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ भेंट कर गई। लड़के को लगा कि लड़की ने उसे ठग लिया है। बड़ी एडवांस्ड बनी फिरती है ! प्लास्टिक का गुड्डा देकर टरका गई ! खैर, देख लेंगे।
कुछ दिनों के बाद लड़की फिर लड़के से मिलने आई। अपने साथ वह चार तस्वीरें लाई थी। वे उन चार व्यक्तियों की तस्वीरें थीं, जिनकी ओर से विवाह के प्रस्ताव आए थे। एक सच्चे दोस्त के नाते वह लड़के से सलाह लेने आई थी कि इनमें से किसको चुना जाए। या किसी को चुना जाए भी या नहीं ? उसने अपनी दोस्ती की कसम दोहराई और कहा कि वह लड़के की अनुमति और इच्छा के बिना किसी से शादी नहीं करेगी। लड़के के मन में आया कि उसे शादी करने से मना कर दे, पर स्वयं शादी करके उसे रोकना उचित नहीं था। लड़के ने उसे सहर्ष शादी करने की अनुमति दे दी। अब प्रश्न लड़के के चुनाव का था। चूंकि वह लड़की का दोस्त था, लड़की के लिए अच्छे-से-अच्छा वर चुनना उसका कर्तव्य था। उन चारों में से एक इंजीनियर था, एक डॉक्टर, एक लेक्चरर और एक सरकारी अफसर। लड़का बहुत देर तक उन्हें देखता रहा। अंत में उसने बात टालने के लिए लड़की से ही उसकी पसंद पूछी। लड़की को सरकारी अफसर सबसे ज़्यादा पसंद था। लड़का उस सरकारी अफसर को जानता था। सरकारी अफसर एक सच्चा अफसर था। ऊंचे लोगों में उसका उठना-बैठना था, इसलिए शराब पीता था। लड़के ने लड़का को यह बताने की आवश्कता नहीं समझी और उसकी पसंद की ख़ूब प्रशंसा करके जल्दी-जल्दी शादी कर लेने की सलाह दी।
लड़की की शादी हो गई। शादी के उपलक्ष्य में मंगल समारोह भी हुआ। लड़का अपनी पत्नी सहित आमंत्रित था। वह गया भी और अपनी शादी में मिले। उपहारों में से एक मामूली-सा लैमन सेट भी ले गया। इस बार लड़की ने उसका परिचय अपने दोस्त के रूप में न कराकर, अपनी सहेली के पति के रूप में कराया। लड़के को यह बहुत बुरा लगा। वह चाहता था कि लड़की अपने पति से उसका परिचय अपने दोस्त के रूप में कराए, क्योंकि लड़के की पत्नी उससे बहुत दूर खड़ी, जल्दी-जल्दी पनीर के पकौड़े खा रही थी। पर लड़की ने वैसा नहीं किया। इतने में लड़के की पत्नी भी वहां आ गई और लड़का स्वयं ही वहां से टल गया।
कुछ महीनों के पश्चात् लड़की फिर लड़के से मिलने आई। उसने बताया कि उसका पति कमीना आदमी है। शराब पीता है और उस पर शक करता है। वह उसके साथ नहीं रहना चाहती थी और एक सच्ची दोस्त के नाते वह लड़के से सलाह लेने आई थी।
लड़के को बहुत खेद हुआ। उसने सरकारी अफसर के विरुद्ध बहुत कुछ कहा। उसने यह भी कहा कि किसी पशु के साथ रहने से तो अच्छा है कि भारतीय नारी अकेली रहे, अविवाहिता रहे या विधवा रहे ! उसने यह सलाह भी दी कि अब वह लौटकर अपने पति के पास वापस जाए ही न। उसने लड़की को आश्वासन दिया कि वह एक दोस्त के रूप में हर कठिनाई में उसका पूरा-पूरा साथ देगा। लड़की को जोश आ गया। उसने उठते-उठते कहा कि ठीक है, ज़रूरी होने पर वह तलाक भी ले सकती है।
लड़का बहुत खुश हुआ। लड़की के जाने के बाद वह बहुत देर तक सीटी बजाता हुआ कमरे में टहलता रहा। फिर वह बहुत अच्छे मूड़ में बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। टैक्सी लेकर वह अपनी ससुराल गया, जहां उसकी पत्नी सबसे मिलने पहुंची हुई थी। बहुत देर तक वह अपनी सालियों के साथ चहकता रहा, फिर घड़ी देखकर, पत्नी को साथ ले, पिक्चर देखने चला गया।
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